Friday, October 9, 2015

सुधा धारा स्त्रोत (काली ) - Sudha Dhara Stotra (Maa Kaali)

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॥ **सुधा धारा स्त्रोत (काली )**॥ 
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अचिन्त्यामिताकार - शक्तिस्वरुपा, प्रतिव्यक्त्यधिष्ठान सत्वैकमूर्तिः
गुणातीत निर्द्वन्द्वबोधैकगम्या, त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥1॥


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अगोत्राकृतित्वाद अनैकान्तिकत्वात्, अलक्ष्यागमत्वाद-शेषाकरत्वात्
प्रपञ्चालसत्वादनारम्भकत्वात्, त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥2॥


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असाधारणत्वाद सम्बन्धकत्वात्, अभिन्नाश्रयत्वाद-अनाकारकत्वात्
अविद्यात्मकत्वाद-अनाद्यन्तकत्वात्, त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥3॥


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यदा नैव धाता न विष्णुर्न रुद्रो न कालो न व पञ्चभूतानि नाशा
तदाकरणीभूत सत्वैकमूर्तिः त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥4॥


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न मीमांसकानैव कालादितर्का न सांख्यां न योगा न वेदान्तवेदाः
न देवा विदुस्ते निराकारभावम् त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥5॥


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न ते नामगोत्रे, न ते जन्म मृत्युः न ते धामचेष्टे न ते दुःख सौख्ये
न ते मित्र शत्रु न ते बंध मोक्षो त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥6॥


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न बाला न चत्वं वयस्का न वृद्धा न च स्त्री न षण्डः पुमान्नैव च त्वम्
न च त्वं सुरो नासुरो न नरो वा त्वमेँका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥7॥


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जले शीतलत्वं शुचौ दाहकत्त्वं विधौ निर्मलत्वं रवौ तापकत्त्वं
तवैषाम्बिके यस्य कस्यापि शक्तिः त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥8॥


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पपौक्ष्वेडमुग्रं पुरा यन्महेशः पुनः संहरत्यन्तकाले जगच्च
तवैव प्रसादान् न च स्वस्य शक्त्या त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥9॥


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करालाकृतीन्याननानिश्रयन्ती भजन्ती करास्त्रादि बाहुज्यमित्थम्
जगत् पालनायासुराणाम् वधाय त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥10॥


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रुचन्ती शिवाभिर्वहन्ती कपालं जयन्ती सुरारीन् वधन्ती प्रसन्ना
नटन्ती, पतन्ती, चलन्ती हसन्ती त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥11॥


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अपादापिवाताधिकं द्यावसित्वं, श्रुतिभ्यांविहीनापि शब्दं मृणोषि
अनासापि जिघ्रंस्य्नेत्रापि पश्यसि, अजिह्वापि नानारसास्वादविज्ञा
त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥12॥


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यथाबिम्बमेकं रवेरम्बरस्थं प्रतिच्छायया यावदेकोदकेषु
समुद्रमातते नेकरुपं यथावत् त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥13॥


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यथा भ्रामयित्वा मृदं चक्रमध्ये कुलालो विधन्ते शरावे घटं च
महामोह यंत्रेषु भूतान्यशेषान् तथा मानुषांस्त्वं सृजस्यादिसर्गे
त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥14॥


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यथा रंगरज्वर्कदृष्टिष्वकस्मात् नृणाम् रुपदर्वीकराम्बु भ्रमस्यात्
जगत्यत्र तत्तन्मये तद्वदेव त्वमेकैव तत्त् तन्नि तत्ता समस्तम्
त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥15॥


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महाज्योति एकार सिँहासनं वत् त्वकीयान् सुरान् वाहयसि उग्रमूर्ते
अवष्टभ्य पदभ्यां शिवं भैरवं च स्थितातेन मध्ये भवत्यैव मुख्या
त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥16॥


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कुयोगासने योगमुद्रभिः नीतिः कुशोभायुपोतस्य बालाननं च
जगन्मातराद्वक् तवापूर्व लीला कथं कारमस्मत् विधैर्देविगम्या
त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥17


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विशुद्धापरा चिन्मयी स्वप्रकाशः मृतानंदरुपा जगद् वयापिका च
तवेदद्-विद्या या निजाकार मूर्ति किमस्माभिरंतर - ह्यदि ध्यायितव्या
त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥18


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महाघोर कालानल ज्वालज्वाला हित्यत् त्यन्तवासा महाटाट्टहासा
जटाभारकाला महामुण्डमाला विशाला त्वमीद्वग् मयाध्यायशम्ब
त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥19॥


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तपोनैव कुर्वन् वपुः सीदयामि व्रजन्नापि तीर्थँ पदे खंजयामि
पठन्नापि वेदान् चनिं यापयामि त्वदंघ्रिद्वयं मंगलं साधयामि
त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥20॥


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तिरस्कुर्वतोन्या मारोपासनारचे परित्यक्तधर्मादध्वरस्यास्य जन्तोः
वदाराधनान्यस्त चित्तस्य किम् मे करिष्यन्त्यमी धर्मराजस्य दूताः
त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥21॥


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न मन्ये हरिँ नो विधातारमीशं न वहिनं न ह्यर्कं न चेन्द्रादिदेवान्
शिवोदीरितानेक वाक्यप्रबन्धैः त्वदर्चाविधानं विशत्वम्ब मत्याम्
त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥22॥


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नरा मां विनिन्दन्तु नामत्यजेत् सर्वा बान्धवा ज्ञातयः सन्त्यजन्त
यमीया भटा नारके पातयन्तु त्वमेका गतिर्मे त्वमेका गतिर्मे
त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः ॥23॥


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महाकाल रुद्रोदित स्तोत्रमेतत् सदाभक्तिभावेन योऽध्येति भक्ताः
न चापन्न न शोको न रोगो न मृत्युः भवेत् सिद्धिरन्ते च कैवल्यलाभः
त्वमेका परःब्रह्मरुपेण सिद्धाः॥24॥


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इदं शिवायाः कथितं सुधाधाराख्यं स्तवं एतस्य सतताभ्यासात् सिद्धिः करतलेस्थिता
एतत् स्तोत्रं च कवचं पद्मं त्रितयमप्यदः पठनीयं प्रयत्नेन नैमिक्तिक समर्पणे ॥
सौम्येन्दीवर नीलनीरद्घटाप्रोद्-दामदेहच्छटा
लास्योन्माद निनादमंगल चयैः श्रोण्यन्तदोलज्जटाः
साकालीकरवाल कालकलनाहन्त्वंश्रियं चण्डिका
कालीक्रोध करालकालभयदाःउन्माद प्रमोदालयाः
नेत्रोपान्त कृतान्त दैत्यनिर्वहाप्रोद्-दान देहामया ॥


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( इति सुधाधाराकाली स्तोत्रम् ) 


माता महाकाली शरणम् 

1 comment:

Anonymous said...

'उच्छिष्ट गणपति प्रयोगः August 30, 2019 | aspundir | 1 Comment ॥ अथ उच्छिष्ट गणपति प्रयोगः ॥ उच्छिष्ट गणपति का प्रयोग अत्यंत सरल है तथा इसकी साधना में अशुचि-शुचि आदि बंधन नहीं हैं तथा मंत्र शीघ्रफल प्रद है । यह अक्षय भण्डार का देवता है । प्राचीन समय में यति जाति के साधक उच्छिष्ट गणपति या उच्छिष्ट चाण्डालिनी (मातङ्गी) की साधना व सिद्धि द्वारा थोड़े से भोजन प्रसाद से नगर व ग्राम का भण्डारा कर देते थे । इसकी साधना करते समय मुँह उच्छिष्ट होना चाहिये । मुँह में गुड़, पताशा, सुपारी, लौंग, इलायची ताम्बूल आदि कोई एक पदार्थ होना चाहिये । पृथक-पृथक कामना हेतु पृथक-पृथक पदार्थ है । यथा -लौंग, इलायची वशीकरण हेतु । सुपारी फल प्राप्ति व वशीकरण हेतु । गुडौदक – अन्नधनवृद्धि हेतु तथा सर्व सिद्धि हेतु ताम्बूल का प्रयोग करें । अगर साधक पर तामसी कृत्या प्रयोग किया हुआ है, तो उच्छिष्ट गणपति शत्रु की गन्दी क्रियाओं को नष्ट कर साधक की रक्षा करते हैं। ॥ अथ नवाक्षर उच्छिष्टगणपति मंत्रः ॥ मंत्र – हस्ति पिशाचि लिखे स्वाहा । विनियोगः – ॐ अस्य श्रीउच्छिष्ट गणपति मन्त्रस्य कंकोल ऋषिः, विराट् छन्दः, उच्छिष्टगणपति देवता, सर्वाभीष्ट सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ऋष्यादिन्यासः – ॐ अस्य श्री उच्छिष्ट गणपति मंत्रस्य कंकोल ऋषिः नमः शिरसि, विराट् छन्दसे नमः मुखे, उच्छिष्ट गणपति देवता नमः हृदये, सर्वाभीष्ट सिद्ध्यर्थे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे । करन्यास ॐ हस्ति अंगुष्ठाभ्यां नमः । ॐ पिशाचि तर्जनीभ्यां नमः । ॐ लिखे मध्यमाभ्यां नमः । ॐ स्वाहा अनामिकाभ्यां नमः । ॐ हस्ति पिशाचिलिखे कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐ हस्ति पिशाचिलिखे स्वाहा करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । हृदयादिन्यासः- ॐ हस्ति हृदयाय नमः । ॐ पिशाचि शिरसे स्वाहा । ॐ लिखे शिखायै वषट् । ॐ स्वाहा कवचाय हुम् । ॐ हस्ति पिशाचिलिखे नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ हस्ति पिशाचिलिखे स्वाहा अस्त्राय फट् स्वाहा । ॥ ध्यानम् ॥ चतुर्भुजं रक्ततनुं त्रिनेत्रं पाशाङ्कुशौ मोदकपात्रदन्तौ । करैर्दधानं सरसीरुहस्थमुन्मत्त गणेश मीडे । (क्वचिद् पाशाङ्कुशौ कल्पलतां स्वदन्तं करैवहन्तं कनकाद्रि कान्ति) ॥ अथ दशाक्षर उच्छिष्ट गणेश मंत्र ॥ मन्त्रः – १॰ गं हस्ति पिशाचि लिखे स्वाहा । २॰ ॐ हस्ति पिशाचि लिखे स्वाहा । ॥ अथ द्वादशाक्षर उच्छिष्ट गणेश मंत्र ॥ मन्त्रः – ॐ ह्रीं गं हस्ति पिशाचि लिखे स्वाहा । ॥ अथ एकोनविंशत्यक्षर उच्छिष्टगणेश मंत्र ॥ मन्त्रः- ॐ नमो उच्छिष्ट गणेशाय हस्ति पिशाचि लिखे स्वाहा । ॥ अथ त्रिंशदक्षर उच्छिष्टगणेश मंत्र ॥ मन्त्रः- ॐ नमो हस्तिमुखाय लंबोदराय उच्छिष्ट महात्मने क्रां क्रीं ह्रीं घे घे उच्छिष्टाय स्वाहा । विनियोगः- अस्योच्छिष्ट गणपति मंत्रस्य गणक ऋषिः, गायत्री छन्दः , उच्छिष्ट गणपतिर्देवता, ममाभीष्ट सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ॥ अथ एक-त्रिंशदक्षर उच्छिष्टगणेश मंत्र ॥ADD ameya jaywant narvekar