Thursday, November 19, 2015

परा गुरु स्तोत्र - Para Guru Stotra

परा गुरु स्तोत्र 



विनियोगः 

ॐ नमोऽस्य श्रीगुरुकवच नाम मंत्रस्य श्री परम ब्रह्म ऋषिः, सर्व वेदानुज्ञो देव देवो श्रीआदि शिवः देवता, नमो हसौं हंसः हसक्षमलवरयूं सोऽहं हंसः बीजं, सहक्षमलवरयीं शक्तिः, हंसः सोऽहं कीलकं, समस्त श्रीगुरुमण्डल प्रीति द्वारा मम सम्पूर्ण रक्षणार्थे, स्वकृतेन आत्म मंत्रयंत्रतंत्र रक्षणार्थे च पारायणे विनियोगः।

ऋष्यादिन्यासः

श्री परम ब्रह्म ऋषये नमः शिरसि।
अनुष्टुप छंदसे नमः मुखे।
सर्व वेदानुज्ञ देव देवो श्रीआदि शिवः देवतायै नमः ह्रदि।
नमः हसौं हंसः हसक्षमलवरयूं सोऽहं हंसः बीजाय नमः गुह्ये।
सहक्षमलवरयीं शक्तये नमः नाभौ।
हंसः सोऽहं कीलकाय नमः पादयोः।
समस्त श्रीगुरुमण्डल प्रीति द्वारा मम सम्पूर्ण रक्षणार्थे, स्वकृतेन आत्म मंत्रयंत्रतंत्र रक्षणार्थे च पारायणे विनियोगाय नमः अंजलौ।

करन्यासः

हसां अंगुष्ठाभ्यां नमः।
हसीं तर्जनीभ्यां नमः।
हसूं मध्यमाभ्यां नमः।
हसैं अनामिकाभ्यां नमः।
हसौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
हसः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।

ह्रदयादिन्यासः

हसां ह्रदयाय नमः।
हसीं शिरसे स्वाहा।
हसूं शिखायै वषट्।
हसैं कवचाय हुं।
हसौं नेत्रत्रयाय वौषट्।
हसः अस्त्राय फट्।



ध्यानम्ः

श्री सिद्ध मानव मुखा गुरवः स्वरूपं संसार दाह शमनं व्दिभुजं त्रिनेत्रं ।
वामांगं शक्ति सकलाभरणैर्विभूषं ध्यायेज्जपेत् सकल सिद्धि फल प्रदं च ॥


मूल कवचम्ः

ॐ नमः प्रकाशानन्दनाथः तु शिखायां पातु मे सदा ।
परशिवानन्द नाथः शिरो मे रक्षयेत् सदा ॥१॥
परशक्तिदिव्यानन्द नाथो भाले च रक्षतु ।
कामेश्वरानन्द नाथो मुखं रक्षतु सर्व धृक् ॥२॥
दिव्यौघो मस्तकं देवि पातु सर्व शिरः सदा ।
कण्ठादि नाभि पर्यन्तं सिद्धौघा गुरवः प्रिये ॥३॥
भोगानन्द नाथ गुरुः पातु दक्षिण बाहुकम् ।
समयानन्द नाथश्च सन्ततं ह्रदयेऽवतु ॥४॥
सहजानन्द नाथश्च कटिं नाभिं च रक्षतु ।
एष स्थानेषु सिद्धौघाः रक्षन्तु गुरवः सदा ॥५॥
अधरे मानवौघाश्च गुरवः कुल नायिके ।
गगनानन्द नाथश्च गुल्फयोः पातु सर्वदा ॥६॥
नीलौघानन्द नाथश्च रक्षयेत् पाद् पृष्ठतः ।
स्वात्मानन्द नाथ गुरुः पादांगुलीश्च रक्षतु ॥७॥
कन्दोलानन्द नाथश्च रक्षेत् पाद् तले सदा ।
इत्येवं मानवौघाश्च न्येसन्नाभ्यादि पादयोः ॥८॥
गुरुर्मे रक्षयेदुर्व्या सलिले परमो गुरुः ।
परापर गुरुर्वह्नौ रक्षयेत् शिव वल्लभे ॥९॥
परमेष्ठी गुरुश्चैव रक्षयेत् वायु मण्डले ।
शिवादि गुरवः साक्षात् आकाशे रक्षयेत् सदा ॥१०॥
इन्द्रो गुरुः पातु पूर्वे आग्नेयां गुरुरग्नयः ।
दक्षे यमो गुरुः पातु नैॠत्यां निॠतिगुरुः ॥११॥
वरुणो गुरुः पश्चिमे वायव्यां मारुतो गुरुः ।
उत्तरे धनदः पातु ऐशान्यां ईश्वरो गुरुः ॥१२॥
ऊर्ध्वं पातु गुरुर्ब्रह्मा अनन्तो गुरुरप्यधः ।
एवं दश दिशः पान्तु इन्द्रादि गुरवः क्रमात् ॥१३॥
शिरसः पाद पर्यन्तं पान्तु दिव्यौघ सिद्धयः ।
मानवौघाश्च गुरवो व्यापकं पान्तु सर्वदा ॥१४॥
सर्वत्र गुरु रूपेण संरक्षेत् साधकोत्तमः ।
आत्मानं गुरु रूपं च ध्यायेन मंत्रं सदा बुधः ॥१५॥


फलश्रुतिः

इत्येवं गुरु कवचं ब्रह्म लोकेऽपि दुर्लभम् ।
तव प्रीत्या मयाऽख्यातं न कस्य कथितं प्रिये ॥
पूजा काले पठेद् यस्तु जप काले विशेषतः ।
त्रैलोक्य दुर्लभम् देवि भुक्ति मुक्ति फलप्रदम् ॥
सर्व मन्त्र फलं तस्य सर्व यन्त्र फलं तथा ।
सर्व तीर्थ फलं देवि यः पठेत् कवचं गुरोः ॥
अष्टगन्धेन् भूर्जे च लिख्यते चक्र संयुतम् ।
कवचं गुरु पंक्तेस्तु भक्त्या च शुभ वासरे ॥
पूजयेत् धूप दीपाद्यैः सुधाभिः सित संयुतैः ।
तर्पयेत् गुरु मन्त्रेण साधकः शुद्ध चेतसा ॥
धारयेत् कवचं देवि इह भूत भयापहम् ।
पठेन्मन्त्री त्रिकालं हि स मुक्तो भव बन्धनात् ॥
एवं कवचं परमं दिव्य सिद्धौघ कलावान ।

॥ हरिः ॐ तत्सत् श्री सदगुरुः ब्रह्मार्पणमस्तु ॥


पाठ विधिः


१००० पाठ का संकल्प लें। गुरु पूजन व गणेश पूजन कर पाठ आरम्भ करें। पहले पाठ में मूल कवच और फलश्रुति दोनों का पाठ करें। बीच के पाठों में मात्र मूल कवच का पाठ करें। और अंतिम पाठ में पुनः मूल कवच और फलश्रुति दोनों का पाठ करें। आप १००० पाठ को ५ या ११ या २१ दिनों में सम्पन्न कर सकते हैं। इस तरह इस सम्पूर्ण प्रक्रम को आप ५ बार करें। तो कुल ५००० पाठ सम्पन्न हो जायेंगे।
प्रयोग विधिः

नित्य किसी भी पूजन या साधना को करने से पूर्व और अन्त में आप कवच का ५ बार पाठ करें। रोगयुक्त अवस्था में या यात्राकाल में स्तोत्र को मानसिक रूप से भावना पूर्वक स्मरण कर लें।
इसी तरह यदि आप श्मशान में किसी साधना को कर रहें हों तो एक लोहे की छ्ड़ को कवच से २१ बार अभिमंत्रित कर अपने चारों ओर घेरा बना लें। और साधना से पूर्व व अन्त में कवच का ५-५ बार पाठ कर लें। जब कवच सिद्धि की साधना कर रहे हो उस समय एक लोहे की छ्ड़ को भी गुरु चित्र या यंत्र के सामने रख सकते हैं। और बाद में उपरोक्त विधि से प्रयोग कर सकते हैं।
अब आप शमसान में जा सकते है कोई भी आपका कुछ नही बिगाड़ सकता 
ये कवच विश्व सार तंत्र के उर्ध्वाम्नाय में आया है
उपरोक्त कवच उर्ध्वाम्नाय अंतर्गत परा प्रसाद कवच है जिसकी महिमा वेदों तन्त्रो के सभी आम्नायों से बढ़कर कही गयी है.

उपरोक्त कवच योगी परमानन्द द्वारा प्रदत्त है

माता महाकाली शरणम् 

Monday, November 9, 2015

Mahalakshmi Pujan / Lakshmi Puja / Deewali Puja / Deepawali Pujan - महालक्ष्मी पूजन / दीवाली पूजा / लक्ष्मी पूजन

जय माँ त्रिशक्ति


सभी मित्रगण एवं गुरुजनों को यथायोग्य प्रणाम तथा वंदन :


दीवाली लक्ष्मी पूजा के लिये प्रदोष मुहूर्त 2015 :

लक्ष्मी पूजा मुहूर्त = १७:४४ से १९:३९
अवधि = १ घण्टा ५५ मिनट्स
प्रदोष काल = १७:२६ से २०:०६

वृषभ काल = १७:४४ से १९:३९

दीवाली लक्ष्मी पूजा के लिये शुभ चौघड़िया मुहूर्त:

प्रातःकाल मुहूर्त (लाभ, अमृत) = ०६:४५ - ०९:२५
प्रातःकाल मुहूर्त (शुभ) = १०:४५ - १२:०६
अपराह्न मुहूर्त (चर, लाभ) = १४:४६ - १७:२७
सायंकाल मुहूर्त (शुभ, अमृत, चर) = १९:०७ - २३:१६


अमावस्या तिथि प्रारम्भ = १०/नवम्बर/२०१५ को २१:२३ बजे
अमावस्या तिथि समाप्त = ११/नवम्बर/२०१५ को २३:१६ बजे

( तिथि एवं समय द्रिकपंचांग से उद्धृत )



माता महाकालिका सभी पूजनकर्ताओं को सफलता दें ताकि वे सब अपनी दैनिक और व्यक्तिगत समस्यायों से ऊपर उठकर अपना समय भक्ति और आत्मोन्नति में लगा सकें।

मित्रों जैसा कि आप सबको विदित है कि ११ नवंबर २०१५ को दीवाली (दीपमालिकाओं का पर्व ) है और इस पर्व पर चतुर्दिक प्रकाश ही प्रकाश करने के उद्देश्य से इंसान बहुत सी कोशिशें करता है ताकि इस धरा से और उसके जीवन से सभी तरह के अंधकार मिट जाएँ। इसी क्रम में आज एक सामान्य किन्तु प्रभावी विधि माँ महालक्ष्मी को प्रसन्न करने हेतु आप सबके समक्ष रखने जा रहा हूँ आशा करता हूँ कि आपका समर्पण और माँ की कृपा दृष्टि मिलकर आपके संसार को एक नया आयाम देंगे।

सर्वप्रथम हम पूरी सामग्री की लिस्ट बना लेते हैं जिससे कोई चीज हमारी पूजा के बीच में छूट ना जाये :-

कच्चा दूध
दही
घी
(उपरोक्त तीनों चीजें गाय की हों तो अति उत्तम अन्यथा उपलब्धता के आधार पर जो उपलब्ध हो वही प्रयोग करें )
चौकी / पीढ़ा / बाजोट
लाल कपडा सवा मीटर
शहद
गंगाजल
आम्रपत्र
बेलपत्र / विल्वपत्र
दूर्वा / दूब घास
फूल
फल
लोटा
थाली
शंख
घंटी
पीले चावल
शुद्ध जल
धुप / अगरबत्ती
माँ महालक्ष्मी की मूर्ति या फोटो
हल्दी 9 गांठ
सुपारी 11
जनेऊ ४
सिन्दूर
मौली
गुलाल
इत्र (तीन प्रकार के )
कमल का फूल
कमलगट्टे - २७ + १०८
नारियल ५
मिठाई
पान के पत्ते
चन्दन
धान का लावा
घी / तिल / सरसों का तेल
रुई या कपास की बत्ती
हवन करने के लिए वेदी या अन्य कोई पात्र।


अब किसी एक समुचित स्थान अथवा अपने पूजा गृह में चौकी / पीढ़ा / बाजोट पर लाल कपडा बिछाएं और उसके सामने ही अपने लिए आसन की व्यवस्था करें - तथा आसन पर बैठकर आचमनी (ताम्बे की छोटी सी चमची) से अपने ऊपर जल छिड़कें और यह भावना करें कि इस पवित्र जल के छींटों से आप पवित्र हो रहे हैं और आप सभी पाप-दोषों से मुक्त हो रहे हैं।

अब जो चौकी आपने माँ के पूजन के रखी थी लाल कपडा बिछी हुयी उस पर भी थोड़ा गंगाजल छिड़कें और यह भावना करें कि पूर्ण रूप से शुद्ध स्थल पर आप माँ को आसन दे रहे हैं।

इस पूजा में आपका मुंह उत्तर अथवा पश्चिम की ओर होना चाहिए - पश्चिम की ओर रख सकें तो अत्युत्तम क्योंकि पश्चिमाभिमुख पूजा से माँ महालक्ष्मी अति प्रसन्न होती हैं।

इसके पश्चात वहीँ माँ महालक्ष्मी के आसन के समीप चन्दन से अष्टदल कमल का निर्माण करके उसमे ११ या २१ रुपये के सिक्के अथवा चांदी के सिक्के की स्थापना करें( द्रव्य लक्ष्मी)

तत्पश्चात संकल्प लें :- " मैं (अपना नाम ) पुत्र श्री (पिता का नाम ) गोत्र (गोत्र का नाम ) पता (अपना पूरा पता ) अपने परिजनों के साथ आज (दिवस का नाम - मास का नाम - पक्ष का नाम - तिथि का नाम ) माता महाकाली की कृपा प्राप्ति हेतु पूजन कर रहा हूँ। कृपा पूर्वक मेरी पूजा ग्रहण कर मुझ पर अपनी कृपा बनाये रखें" ।

इसके पश्चात ५ घी की दीपमालिकाएँ जला लें - जल से भरा कलश चौकी पर रख लें - कलश में मौली बांधकर स्वास्तिक चिन्ह आदि अंकित कर लें -!

इसके पश्चात अब पूजन कार्य प्रारम्भ करें :-

  1. प्रथम गुरु पूजन (पंचोपचार / षोडशोपचार) अपने समय और सुविधानुसार 
  2. द्वितीय गणेश पूजन (पंचोपचार / षोडशोपचार) अपने समय और सुविधानुसार
  3. तृतीय महालक्ष्मी पूजन (पंचोपचार / षोडशोपचार) अपने समय और सुविधानुसार 
  4. चतुर्थ द्रव्य लक्ष्मी पूजन (पंचोपचार / षोडशोपचार) अपने समय और सुविधानुसार
  5. पंचम दीपमालिका पूजन (पंचोपचार )
यथा :
ॐ दीपमालिके लं पृथिव्यात्मकं गन्धं समर्पयामि
ॐ दीपमालिके हं आकाश तत्वात्मकं पुष्पं समर्पयामि
ॐ दीपमालिके यं वायव्यात्मकं धूपं समर्पयामि
ॐ दीपमालिके रं अग्नि तत्वात्मकं दीपं समर्पयामि
ॐ दीपमालिके वं जल तत्व अमृतात्मकं नैवेद्यं समर्पयामि
ॐ दीपमालिके सं सर्व तत्वात्मकं ताम्बूलं समर्पयामि

तत्पश्चात प्रार्थना करें :

त्वं ज्योतिस्तवं रविष्चन्द्रो विद्युदग्निश्च तारकाः
सर्वेषां ज्योतिषां ज्योतिर्दीपावल्यै नमो नमः।।

तत्पश्चात जो भी फल - धान का लावा - मिठाई इत्यादि है वह सब माँ को और दीपमालिकाओं को और अन्य सभी देवी देवताओं को समर्पित करें। इसके बाद अन्य सभी दीपकों को उन्ही पांच दीपकों द्वारा प्रज्ज्वलित कर सम्पूर्ण गृह में प्रकाश की स्थापना करें(ध्यान रखें कि यदि घर में तुलसी वृक्ष, कोई मंदिर, पीपल वृक्ष आदि हों तो वहां पर दीपक जलाना या रखना ना भूलें) इसके पश्चात वापस पूजन स्थल में आकर हवन / होम कृत्य संपन्न करें।

## कमलगट्टों को शुद्ध घी में डुबोकर अग्रलिखित श्रीसूक्त की प्रत्येक ऋचा को पढ़कर एक आहुति दें :

।।श्री सूक्त।।

ॐ हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्त्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम्।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम्।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिं वृद्धिं ददातु मे।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात्।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम्।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भ्रम-कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम्।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे।
निच-देवी मातरं श्रियं वासय मे कुले।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम्।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

यः शुचिः प्रयतो भूत्वा, जुहुयादाज्यमन्वहम्।
श्रियः पंच-दशर्चं च, श्री-कामः सततं जपेत्।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

पद्मानने पद्म उरू पद्माक्षी पद्मसम्भवे।
तन्मेभजसि पद्माक्षी येन सौख्यं लभाम्यहं।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने।
धनं में जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि में।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

पद्मानने पद्मविपद्म पत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विश्वमनोकूले त्वत्पादपद्मं मयि संनिधत्स्व।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

पुत्रपौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वादिवेगरथं ।
प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु मे।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः।
धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणं धनमस्तु मे।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

वैनतेय सोमं पिव सोमं पिबतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

न क्रोधो न मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः।
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां श्रीसूक्तं जपेत्।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुकगंधमालयशोभे।
भगवति हरिबल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यं।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

विष्णुपत्नीं क्षमादेवीं माधवीं माधवप्रियाम।
लक्ष्मीं प्रियसखीम् देवीं नमाम्यच्युत वल्लभाम्। । ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

श्रीवर्चस्वमायुष्यमारोग्यमाविधाच्छोभमानं महीयते।
धान्यं धनं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसवंत्सरं दीर्घमायुः।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

मातु महालक्ष्म्यै त्वां नमाम्यहम् नमाम्यहम्।
नमाम्यहम् नमाम्यहम् नमाम्यहम्।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।
अब इसके उपरांत कमलगट्टों को शहद में डुबोकर अग्रलिखित मन्त्र से १०८ आहुतियां दें।

"महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमहि तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात"।। ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा।।

इसके पश्चात सभी अन्य आवाहन किये हुए देवताओं को (महालक्ष्मी एवं गणेश जी को छोड़कर ) निम्न मन्त्र के द्वारा विसर्जित कर दें।

यान्तु देवगणाः सर्वे पूजमादाया मामकीम्।
इष्टकाम समृद्धयर्थं पुनरागमनाय च।।


इसके पश्चात पूजन का समापन करें एवं परिवार के सभी सदस्यों को एवं आगंतुक अथवा मित्रजनों को प्रसाद वितरित करें तथा सुबह अगले दिन सभी सामग्री को विसर्जित करें।

(दीपमालिका के लिए प्रयास करें कि शुद्ध देशी घी का प्रयोग करें यदि शुद्ध घी उपलब्ध ना हो सके तो बाजार के घी की जगह तिल का तेल प्रयोग करें यदि वह भी ना हो सके तो सरसों के तेल का प्रयोग करें)

# माँ महालक्ष्मी आप सबके जीवन में उजाला तथा सुख समृद्धि लाएं - इसी कामना के साथ आप सबको मेरी ओर से दीवाली की बहुत-बहुत शुभकामनायें। 




माता महाकाली शरणम् 

Friday, November 6, 2015

देवी अपराजिता साधना - Devi Aprajita Sadhna


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अपराजिता।। 
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पराजिता का अर्थ है जो कभी पराजित नहीं होता।

देवी अपराजिता के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य भी जानने योग्य हैं जैसे कि उनकी मूल प्रकृति क्या है ?

देवी अपराजिता के पूजनारम्भ तब से हुआ जब देवासुर संग्राम के दौरान नवदुर्गाओं ने जब दानवों के संपूर्ण वंश का नाश कर दिया तब माँ दुर्गा अपनी मूल पीठ शक्तियों में से अपनी आदि शक्ति अपराजिता को पूजने के लिए शमी की घास लेकर हिमालय में अन्तरध्यान हुईं। 

क्रमशः बाद में आर्यावर्त के राजाओं ने विजय पर्व के रूप में विजय दशमी की स्थापना की। जो कि नवरात्रों के बाद प्रचलन में आई।

स्मरण रहे कि उस वक्त की विजय दशमी मूलतः देवताओं द्वारा दानवों पर विजय प्राप्त के उपलक्ष्य में थी। स्वभाविक रूप से नवरात्र के दशवें दिन ही विजय दशमी मनाने की परंपरा चली। इसके पश्चात पुनः जब त्रेता युग में रावण के अत्याचारों से पृथ्वी एवं देव-दानव सभी त्रस्त हुए तो पुनः पुरुषोत्तम राम द्वारा दशहरे के दिन रावण का अंत किया गया जो एक बार पुनः विजयादशमी के रूप सामने आया और इसके साथ ही एक सोपान और जुड़ गया दशमी के साथ।

अगर यह कहा जाये कि विजय दशमी और देवी अपराजिता का सम्बन्ध बहुत हद तक क्षत्रिय राजाओं के साथ ज्यादा गहरा और अनुकूल है तो संभवतः कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी किन्तु इसे किसी पूर्वधारणा की तरह नहीं स्वीकार करना चाहिए कि अपराजिता क्षत्रियों की देवी हैं और अन्य वर्ण के लोग इनकी साधना-आराधना नहीं कर सकते ।

बहुत से स्थलों में देवी अपराजिता के सम्बन्ध में विभिन्न कथाएं और विधियां मिल जाती हैं लेकिन उनमे मूल भेद बहुत परिलक्षित होते हैं अस्तु उनका साधन करने से पूर्व किसी जानकार व्यक्ति से सलाह अवश्य ही कर लेनी चाहिए जिससे अशुद्धिओं और गलतियों से कुछ हद तक छुटकारा पाया जा सके हालाँकि शत प्रतिशत शुद्धता ला पाना सर्वसाधारण के वश की बात नहीं हैं किन्तु अल्प अशुद्धियाँ सफलता के मापदंडों को बढ़ा ही देती हैं साथ ही भावयुक्त साधना भी अशुद्धिओं को तिरस्कृत कर देती है जिससे अधिक अच्छे परिणाम मिल ही जाते हैं -!

देवी अपराजिता शक्ति की नौ पीठ शक्तियों में से एक हैं जिनका क्रम निम्न प्रकार है एवं जया और विजया से सम्बंधित बहुत सी कथाएं भी प्रचलित हैं जो देवी पार्वती की बहुत ही अभिन्न सखियों के रूप में जानी जाती हैं - शक्ति की बहुत ही संहारकारी शक्ति है अपराजिता जो कभी अपराजित नहीं हो सकती और ना ही अपने साधकों को कभी पराजय का मुख देखने देती है - विषम परिस्थिति में जब सभी रास्ते बंद हों उस स्थिति में भी हंसी-खेल में अपने साधक को बचा ले जाना बहुत मामूली बात है अपराजिता के लिए।

  1. जया 
  2. विजया
  3. अजिता
  4. अपराजिता
  5. विलासिनी
  6. दोमर्ध्य
  7. अघोरा
  8. मंगला 
  9. नित्या 

अपराजिता की साधना के सम्बन्ध में" धर्मसिन्धु "जो वर्णन है वह निम्न प्रकार है :

धर्मसिंधु में अपराजिता की पूजन की विधि संक्षेप में इस प्रकार है‌ : 
"अपराह्न में गाँव के उत्तर पूर्व जाना चाहिए, एक स्वच्छ स्थल पर गोबर से लीप देना चाहिए, चंदन से आठ कोणों का एक चित्र खींच देना चाहिए उसके पश्चात संकल्प करना चहिए : 

"मम सकुटुम्बस्य क्षेमसिद्ध्‌यर्थमपराजितापूजनं करिष्ये"

राजा के लिए विहित संकल्प अग्र प्रकार है : 

" मम सकुटुम्बस्य यात्रायां विजयसिद्ध्‌यर्थमपराजितापूजनं करिष्ये" 

इसके उपरांत उस चित्र (आकृति) के बीच में अपराजिता का आवाहन करना चाहिए और इसी प्रकार उसके दाहिने एवं बायें जया एवं विजया का आवाहन करना चहिए और 'साथ ही क्रियाशक्ति को नमस्कार' एवं 'उमा को नमस्कार' कहना चाहिए। 
इसके उपरांत :
"अपराजितायै नम:, 
जयायै नम:, 
विजयायै नम:, मंत्रों के साथ अपराजिता, जया, विजया की पूजा 16 उपचारों के साथ करनी चाहिए और यह प्रार्थना करनी चाहिए, 'हे देवी, यथाशक्ति जो पूजा मैंने अपनी रक्षा के लिए की है, उसे स्वीकर कर आप अपने स्थान को गमन करें जिससे कि मैं अगली बार पुनः आपका आवाहन और पूजन वंदन कर सकूँ "। 

राजा के लिए इसमें कुछ अंतर है। 

राजा को विजय के लिए ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए : 

"वह अपाराजिता जिसने कंठहार पहन रखा है, जिसने चमकदार सोने की मेखला (करधनी) पहन रखी है, जो अच्छा करने की इच्छा रखती है, मुझे विजय दे"

इसके उपरांत उसे उपर्युक्त प्रार्थना करके विसर्जन करना चाहिए। तब सबको गाँव के बाहर उत्तर पूर्व में उगे शमी वृक्ष की ओर जाना चाहिए और उसकी पूजा करनी चाहिए। 

शमी की पूजा के पूर्व या या उपरांत लोगों को सीमोल्लंघन करना चाहिए। कुछ लोगों के मत से विजयादशमी के अवसर पर राम और सीता की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि उसी दिन राम ने लंका पर विजय प्राप्त की थी। राजा के द्वारा की जाने वाली पूजा का विस्तार से वर्णन हेमाद्रि तिथितत्त्व में वर्णित है। निर्णय सिंधु एवं धर्मसिंधु में शमी पूजन के कुछ विस्तार मिलते हैं। 

यदि शमी वृक्ष ना हो तो अश्मंतक वृक्ष की पूजा की जानी चाहिए।

अस्तु मेरे अपने हिसाब से देवी अपराजिता का पूजन शक्ति क्रम में ही किया जाना चाहिए ठीक जैसे अन्य शक्ति साधनाएं संपन्न की जाती हैं -!

  1. प्रथम गुरु पूजन 
  2. द्वितीय गणपति पूजन 
  3. भैरव पूजन 
  4. देवी पूजन 
अपनी सुविधानुसार पंचोपचार,षोडशोपचार इत्यादि से पूजन संपन्न करें मन्त्र जप - स्तोत्र जप आदि संपन्न करें और अंत में होम विधि संपन्न करें।


मन्त्र जप : मंत्रों के सम्बन्ध में बहुधा भ्रम की स्थिति रहती है क्योंकि यदि आपने थोड़ा सा भी अध्ययन और खोज आदि पूर्व में की हैं तो उस स्थिति में बहुत से मंत्र ऐसे होते हैं जो आपकी जानकारी से बाहर के होते हैं अर्थात कई बार उनके बीज भिन्न हो सकते हैं और कई बार मंत्र विन्यास भिन्न हो सकता है तो इस दशा में सीमित ज्ञान आपको भ्रमित कर देता है - अस्तु सभी मित्रों को मेरी एक ही सलाह है कि शक्ति मंत्रों में यदि "ह्रीं,क्लीं,क्रीं, ऐं,श्रीँ आदि आते हैं तो उन मंत्रों को भेदात्मक दृष्टि से ना देखें क्योंकि एक परम आद्या शक्ति के तीन भेद भक्तों के हितार्थ बने जिन्हे त्रिशक्ति के नाम से भी जाना जाता है ( महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती) अन्य शक्ति भेद अथवा क्रम इन्ही तीन मूलों से निःसृत हैं अस्तु समस्त मन्त्र आदि इन्ही कुछ मूल बीजों के आस-पास घूमते हैं इसके अतिरिक्त इस बात पर मंत्र विन्यास निर्भर करता है कि जिस भी मंत्र वेत्ता ने उस मंत्र का निर्माण किया होगा उस समय वास्तव में उनका दृष्टिकोण और आवश्यकता क्या रही होगी ?

हालंकि यह सब बातें तो बहुत दूर की और लम्बी सोच की हैं अस्तु ज्यादा ना भटकते हुए बस इतना ही कहूँगा कि यदि कभी भी मंत्रों का संसार समझ में ना आये तो सबसे आसान उपाय है कि उस देवता या देवी के गायत्री मंत्र का प्रयोग करें।

यथा :

"ॐ सर्वविजयेश्वरी विद्महे शक्तिः धीमहि अपराजितायै प्रचोदयात"

अपनी सामर्थ्यानुसार उपरोक्त गायत्री का जप करें और देवी अपराजिता का वरदहस्त प्राप्त करें - देवी आपको सदा अजेय और संपन्न रखें यही मेरी कामना है।

।।अथ श्री अपराजिता स्तोत्र ।।


ॐ नमोऽपराजितायै ।।
ॐ अस्या वैष्णव्याः पराया अजिताया महाविद्यायाः वामदेव-बृहस्पति-मार्केण्डेया ऋषयः ।
गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहती छन्दांसि ।
श्री लक्ष्मीनृसिंहो देवता ।
ॐ क्लीं श्रीं ह्रीं बीजम् ।
हुं शक्तिः ।
सकलकामनासिद्ध्यर्थं अपराजितविद्यामन्त्रपाठे विनियोगः ।।
ध्यान:

ॐ निलोत्पलदलश्यामां भुजङ्गाभरणान्विताम् ।।
शुद्धस्फटिकसङ्काशां चन्द्रकोटिनिभाननाम् ।।१।।

शङ्खचक्रधरां देवी वैष्ण्वीमपराजिताम् ।।
बालेन्दुशेखरां देवीं वरदाभयदायिनीम् ।।२।।

नमस्कृत्य पपाठैनां मार्कण्डेयो महातपाः ।।३।।

मार्ककण्डेय उवाच :

शृणुष्वं मुनयः सर्वे सर्वकामार्थसिद्धिदाम् ।।
असिद्धसाधनीं देवीं वैष्णवीमपराजिताम् ।।४।।

ॐ नमो नारायणाय, 
नमो भगवते वासुदेवाय, 
नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रशीर्षायणे, 
क्षीरोदार्णवशायिने, 
शेषभोगपर्य्यङ्काय, 
गरुडवाहनाय, 
अमोघाय 
अजाय 
अजिताय 
पीतवाससे ।।

ॐ वासुदेव सङ्कर्षण प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, हयग्रिव, मत्स्य कूर्म्म, वाराह नृसिंह, अच्युत, वामन, त्रिविक्रम, श्रीधर राम राम राम ।
वरद, वरद, वरदो भव, नमोऽस्तु ते, नमोऽस्तुते, स्वाहा ।।

ॐ असुर-दैत्य-यक्ष-राक्षस-भूत-प्रेत -पिशाच-कूष्माण्ड-सिद्ध-योगिनी-डाकिनी-शाकिनी-स्कन्दग्रहान् उपग्रहान्नक्षत्रग्रहांश्चान्या हन हन पच पच मथ मथ विध्वंसय विध्वंसय विद्रावय विद्रावय चूर्णय चूर्णय शङ्खेन चक्रेण वज्रेण शूलेन गदया मुसलेन हलेन भस्मीकुरु कुरु स्वाहा ।।

ॐ सहस्रबाहो सहस्रप्रहरणायुध, जय जय, विजय विजय, अजित, अमित, अपराजित, अप्रतिहत, सहस्रनेत्र, ज्वल ज्वल, प्रज्वल प्रज्वल, विश्वरूप बहुरूप, मधुसूदन, महावराह, महापुरुष, वैकुण्ठ, नारायण, पद्मनाभ, गोविन्द, दामोदर, हृषीकेश, केशव, सर्वासुरोत्सादन, सर्वभूतवशङ्कर, सर्वदुःस्वप्नप्रभेदन, सर्वयन्त्रप्रभञ्जन, सर्वनागविमर्दन, सर्वदेवमहेश्वर, सर्वबन्धविमोक्षण, सर्वाहितप्रमर्दन, सर्वज्वरप्रणाशन, सर्वग्रहनिवारण, सर्वपापप्रशमन, जनार्दन, नमोऽस्तुते स्वाहा ।।

विष्णोरियमनुप्रोक्ता सर्वकामफलप्रदा ।।
सर्वसौभाग्यजननी सर्वभीतिविनाशिनी ।।५।।

सर्वैंश्च पठितां सिद्धैर्विष्णोः परमवल्लभा ।।
नानया सदृशं किङ्चिद्दुष्टानां नाशनं परम् ।।६।।

विद्या रहस्या कथिता वैष्णव्येषापराजिता ।।
पठनीया प्रशस्ता वा साक्षात्सत्त्वगुणाश्रया ।।७।।

ॐ शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये ।।८।।

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि ह्यभयामपराजिताम् ।।
या शक्तिर्मामकी वत्स रजोगुणमयी मता ।।९।।

सर्वसत्त्वमयी साक्षात्सर्वमन्त्रमयी च या ।।
या स्मृता पूजिता जप्ता न्यस्ता कर्मणि योजिता ।।
सर्वकामदुधा वत्स शृणुष्वैतां ब्रवीमि ते ।।१०।।

य इमामपराजितां परमवैष्णवीमप्रतिहतां पठति सिद्धां स्मरति सिद्धां महाविद्यां जपति पठति शृणोति स्मरति धारयति कीर्तयति वा न तस्याग्निवायुवज्रोपलाशनिवर्षभयं, न समुद्रभयं, न ग्रहभयं, न चौरभयं, न शत्रुभयं, न शापभयं वा भवेत् ।।

क्वचिद्रात्र्यन्धकारस्त्रीराजकुलविद्वेषि-विषगरगरदवशीकरण-विद्वेष्णोच्चाटनवधबन्धनभयं वा न भवेत् ।।
एतैर्मन्त्रैरुदाहृतैः सिद्धैः संसिद्धपूजितैः ।।

।। ॐ नमोऽस्तुते ।।

अभये, अनघे, अजिते, अमिते, अमृते, अपरे, अपराजिते, पठति, सिद्धे जयति सिद्धे, स्मरति सिद्धे, एकोनाशीतितमे, एकाकिनि, निश्चेतसि, सुद्रुमे, सुगन्धे, एकान्नशे, उमे ध्रुवे, अरुन्धति, गायत्रि, सावित्रि, जातवेदसि, मानस्तोके, सरस्वति, धरणि, धारणि, सौदामनि, अदिति, दिति, विनते, गौरि, गान्धारि, मातङ्गी कृष्णे, यशोदे, सत्यवादिनि, ब्रह्मवादिनि, कालि, कपालिनि, करालनेत्रे, भद्रे, निद्रे, सत्योपयाचनकरि, स्थलगतं जलगतं अन्तरिक्षगतं वा मां रक्ष सर्वोपद्रवेभ्यः स्वाहा ।।

यस्याः प्रणश्यते पुष्पं गर्भो वा पतते यदि ।।
म्रियते बालको यस्याः काकवन्ध्या च या भवेत् ।।११।।

धारयेद्या इमां विद्यामेतैर्दोषैर्न लिप्यते ।।
गर्भिणी जीववत्सा स्यात्पुत्रिणी स्यान्न संशयः ।।१२।।

भूर्जपत्रे त्विमां विद्यां लिखित्वा गन्धचन्दनैः ।।
एतैर्दोषैर्न लिप्येत सुभगा पुत्रिणी भवेत् ।।१३।।

रणे राजकुले द्यूते नित्यं तस्य जयो भवेत् ।।
शस्त्रं वारयते ह्योषा समरे काण्डदारुणे ।।१४।।

गुल्मशूलाक्षिरोगाणां क्षिप्रं नाश्यति च व्यथाम् ।।
शिरोरोगज्वराणां न नाशिनी सर्वदेहिनाम् ।।१५।।

इत्येषा कथिता विध्या अभयाख्याऽपराजिता ।।
एतस्याः स्मृतिमात्रेण भयं क्वापि न जायते ।।१६।।

नोपसर्गा न रोगाश्च न योधा नापि तस्कराः ।।
न राजानो न सर्पाश्च न द्वेष्टारो न शत्रवः ।।१७।।

यक्षराक्षसवेताला न शाकिन्यो न च ग्रहाः ।।
अग्नेर्भयं न वाताच्व न स्मुद्रान्न वै विषात् ।।१८।।

कार्मणं वा शत्रुकृतं वशीकरणमेव च ।।
उच्चाटनं स्तम्भनं च विद्वेषणमथापि वा ।।१९।।

न किञ्चित्प्रभवेत्तत्र यत्रैषा वर्ततेऽभया ।।
पठेद् वा यदि वा चित्रे पुस्तके वा मुखेऽथवा ।।२०।।

हृदि वा द्वारदेशे वा वर्तते ह्यभयः पुमान् ।।
हृदये विन्यसेदेतां ध्यायेद्देवीं चतुर्भुजाम् ।।२१।।

रक्तमाल्याम्बरधरां पद्मरागसमप्रभाम् ।।
पाशाङ्कुशाभयवरैरलङ्कृतसुविग्रहाम् ।।२२।।

साधकेभ्यः प्रयच्छन्तीं मन्त्रवर्णामृतान्यपि ।।
नातः परतरं किञ्चिद्वशीकरणमनुत्तमम् ।।२३।।

रक्षणं पावनं चापि नात्र कार्या विचारणा ।
प्रातः कुमारिकाः पूज्याः खाद्यैराभरणैरपि ।।
तदिदं वाचनीयं स्यात्तत्प्रीत्या प्रीयते तु माम् ।।२४।।

ॐ अथातः सम्प्रवक्ष्यामि विद्यामपि महाबलाम् ।।
सर्वदुष्टप्रशमनीं सर्वशत्रुक्षयङ्करीम् ।।२५।।

दारिद्र्यदुःखशमनीं दौर्भाग्यव्याधिनाशिनीम् ।।
भूतप्रेतपिशाचानां यक्षगन्धर्वरक्षसाम् ।।२६।।

डाकिनी शाकिनी-स्कन्द-कूष्माण्डानां च नाशिनीम् ।।
महारौद्रिं महाशक्तिं सद्यः प्रत्ययकारिणीम् ।।२७।।

गोपनीयं प्रयत्नेन सर्वस्वं पार्वतीपतेः ।।
तामहं ते प्रवक्ष्यामि सावधानमनाः शृणु ।।२८।।

एकान्हिकं द्व्यन्हिकं च चातुर्थिकार्द्धमासिकम् ।।
द्वैमासिकं त्रैमासिकं तथा चातुर्मासिकम् ।।२९।।

पाञ्चमासिकं षाङ्मासिकं वातिक पैत्तिकज्वरम् ।।
श्लैष्पिकं सात्रिपातिकं तथैव सततज्वरम् ।।३०।।

मौहूर्तिकं पैत्तिकं शीतज्वरं विषमज्वरम् ।
द्व्यहिन्कं त्र्यह्निकं चैव ज्वरमेकाह्निकं तथा ।।
क्षिप्रं नाशयेते नित्यं स्मरणादपराजिता ।।३१।।

ॐ हॄं हन हन, कालि शर शर, गौरि धम्, धम्, विद्ये आले ताले माले गन्धे बन्धे पच पच विद्ये नाशय नाशय पापं हर हर संहारय वा दुःखस्वप्नविनाशिनि कमलस्तिथते विनायकमातः रजनि सन्ध्ये, दुन्दुभिनादे, मानसवेगे, शङ्खिनि, चाक्रिणि गदिनि वज्रिणि शूलिनि अपमृत्युविनाशिनि विश्वेश्वरि द्रविडि द्राविडि द्रविणि द्राविणि केशवदयिते पशुपतिसहिते दुन्दुभिदमनि दुर्म्मददमनि ।।

शबरि किराति मातङ्गि ॐ द्रं द्रं ज्रं ज्रं क्रं क्रं तुरु तुरु ॐ द्रं कुरु कुरु ।।

ये मां द्विषन्ति प्रत्यक्षं परोक्षं वा तान् सर्वान् दम दम मर्दय मर्दय तापय तापय गोपय गोपय पातय पातय शोषय शोषय उत्सादय उत्सादय ब्रह्माणि वैष्णवि माहेश्वरि कौमारि वाराहि नारसिंहि ऐन्द्रि चामुन्डे महालक्ष्मि वैनायिकि औपेन्द्रि आग्नेयि चण्डि नैरृति वायव्ये सौम्ये ऐशानि ऊर्ध्वमधोरक्ष प्रचण्डविद्ये इन्द्रोपेन्द्रभगिनि ।।

ॐ नमो देवि जये विजये शान्ति स्वस्ति-तुष्टि पुष्टि-विवर्द्धिनि ।
कामाङ्कुशे कामदुधे सर्वकामवरप्रदे ।।
सर्वभूतेषु मां प्रियं कुरु कुरु स्वाहा ।
आकर्षणि आवेशनि-, ज्वालामालिनि-, रमणि रामणि, धरणि धारिणि, तपनि तापिनि, मदनि मादिनि, शोषणि सम्मोहिनि ।।
नीलपताके महानीले महागौरि महाश्रिये ।।
महाचान्द्रि महासौरि महामायूरि आदित्यरश्मि जाह्नवि ।।
यमघण्टे किणि किणि चिन्तामणि ।।
सुगन्धे सुरभे सुरासुरोत्पन्ने सर्वकामदुघे ।।
यद्यथा मनीषितं कार्यं तन्मम सिद्ध्यतु स्वाहा ।।

ॐ स्वाहा ।।
ॐ भूः स्वाहा ।।
ॐ भुवः स्वाहा ।।
ॐ स्वः स्वहा ।।
ॐ महः स्वहा ।।
ॐ जनः स्वहा ।।
ॐ तपः स्वाहा ।।
ॐ सत्यं स्वाहा ।।
ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा ।।

यत एवागतं पापं तत्रैव प्रतिगच्छतु स्वाहेत्योम् ।।
अमोघैषा महाविद्या वैष्णवी चापराजिता ।।३२।।

स्वयं विष्णुप्रणीता च सिद्धेयं पाठतः सदा ।।
एषा महाबला नाम कथिता तेऽपराजिता ।।३३।।

नानया सद्रशी रक्षा. त्रिषु लोकेषु विद्यते ।।
तमोगुणमयी साक्षद्रौद्री शक्तिरियं मता ।।३४।।

कृतान्तोऽपि यतो भीतः पादमूले व्यवस्थितः ।।
मूलधारे न्यसेदेतां रात्रावेनं च संस्मरेत् ।।३५।।

नीलजीमूतसङ्काशां तडित्कपिलकेशिकाम् ।।
उद्यदादित्यसङ्काशां नेत्रत्रयविराजिताम् ।।३६।।

शक्तिं त्रिशूलं शङ्खं च पानपात्रं च विभ्रतीम् ।।
व्याघ्रचर्मपरीधानां किङ्किणीजालमण्डिताम् ।।३७।।

धावन्तीं गगनस्यान्तः तादुकाहितपादकाम् ।।
दंष्ट्राकरालवदनां व्यालकुण्डलभूषिताम् ।।३८।।

व्यात्तवक्त्रां ललज्जिह्वां भृकुटीकुटिलालकाम् ।।
स्वभक्तद्वेषिणां रक्तं पिबन्तीं पानपात्रतः ।।३९।।

सप्तधातून् शोषयन्तीं क्रुरदृष्टया विलोकनात् ।।
त्रिशूलेन च तज्जिह्वां कीलयनतीं मुहुर्मुहः ।।४०।।

पाशेन बद्ध्वा तं साधमानवन्तीं तदन्तिके ।।
अर्द्धरात्रस्य समये देवीं धायेन्महाबलाम् ।।४१।।

यस्य यस्य वदेन्नाम जपेन्मन्त्रं निशान्तके ।।
तस्य तस्य तथावस्थां कुरुते सापि योगिनी ।।४२।।

ॐ बले महाबले असिद्धसाधनी स्वाहेति ।।
अमोघां पठति सिद्धां श्रीवैष्ण्वीम् ।।४३।।

श्रीमदपराजिताविद्यां ध्यायेत् ।।
दुःस्वप्ने दुरारिष्टे च दुर्निमित्ते तथैव च ।।
व्यवहारे भेवेत्सिद्धिः पठेद्विघ्नोपशान्तये ।।४४।।

यदत्र पाठे जगदम्बिके मया, विसर्गबिन्द्वऽक्षरहीनमीडितम् ।।
तदस्तु सम्पूर्णतमं प्रयान्तु मे, सङ्कल्पसिद्धिस्तु सदैव जायताम् ।।४५।।

तव तत्त्वं न जानामि कीदृशासि महेश्वरि ।।
यादृशासि महादेवी तादृशायै नमो नमः ।।४६।।

इस स्तोत्र का विधिवत पाठ करने से सब प्रकार के रोग तथा सब प्रकार के शत्रु और बन्ध्या दोष नष्ट हो जाते हैं ।


विशेष रूप से मुकदमादि में सफलता और राजकीय कार्यों में अपराजित रहने के लिये यह पाठ रामबाण है ।

माता महाकाली शरणम्